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Showing posts from 2014

श्रद्धा (कामायनी) - जयशंकर प्रसाद

कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक, कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत-जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य" सुना यह मनु ने मधु गुंजार मधुकरी का-सा जब सानंद, किये मुख नीचा कमल समान प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद, एक झटका-सा लगा सहर्ष, निरखने लगे लुटे-से कौन गा रहा यह सुंदर संगीत? कुतुहल रह न सका फिर मौन। और देखा वह सुंदर दृश्य नयन का इद्रंजाल अभिराम, कुसुम-वैभव में लता समान चंद्रिका से लिपटा घनश्याम। हृदय की अनुकृति बाह्य उदार एक लम्बी काया, उन्मुक्त मधु-पवन क्रीडित ज्यों शिशु साल, सुशोभित हो सौरभ-संयुक्त। मसृण, गांधार देश के नील रोम वाले मेषों के चर्म, ढक रहे थे उसका वपु कांत बन रहा था वह कोमल वर्म। नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग, खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघवन बीच गुलाबी रंग। आह वह मुख पश्विम के व्योम बीच जब घिरते हों घन श्याम, अरूण रवि-मंडल उनको भेद दिखाई देता हो छविधाम। या कि, नव इंद्रनील लघु श्रृंग फोड़ कर धधक रही हो कांत एक ज्वाल

आशा (कामायनी) - जयशंकर प्रसाद

ऊषा सुनहले तीर बरसती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई, उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का आज लगा हँसने फिर से, वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में शरद-विकास नये सिर से। नव कोमल आलोक बिखरता हिम-संसृति पर भर अनुराग, सित सरोज पर क्रीड़ा करता जैसे मधुमय पिंग पराग। धीरे-धीरे हिम-आच्छादन हटने लगा धरातल से, जगीं वनस्पतियाँ अलसाई मुख धोती शीतल जल से। नेत्र निमीलन करती मानो प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने, जलधि लहरियों की अँगड़ाई बार-बार जाती सोने। सिंधुसेज पर धरा वधू अब तनिक संकुचित बैठी-सी, प्रलय निशा की हलचल स्मृति में मान किये सी ऐठीं-सी। देखा मनु ने वह अतिरंजित विजन का नव एकांत, जैसे कोलाहल सोया हो हिम-शीतल-जड‌़ता-सा श्रांत। इंद्रनीलमणि महा चषक था सोम-रहित उलटा लटका, आज पवन मृदु साँस ले रहा जैसे बीत गया खटका। वह विराट था हेम घोलता नया रंग भरने को आज, 'कौन'? हुआ यह प्रश्न अचानक और कुतूहल का था राज़! "विश्वदेव, सविता या पूषा, सोम, मरूत, चंचल पवमान, वरूण आदि सब घूम रहे हैं किसके शासन में अम्लान? किसका था भू-भंग

भारत महिमा - जयशंकर प्रसाद

छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक जयशंकर प्रसाद का जन्म ३० जनवरी १८९० को वाराणसी में हुआ। स्कूली शिक्षा आठवीं तक किंतु घर पर संस्कृत, अंग्रेज़ी, पाली, प्राकृत भाषाओं का अध्ययन किया। इसके बाद भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन, साहित्य और पुराण कथाओं का एकनिष्ठ स्वाध्याय किया। पिता देवी प्रसाद तंबाकू और सुंघनी का व्यवसाय करते थे और वाराणसी में इनका परिवार सुंघनी साहू के नाम से प्रसिद्ध था| महान छायावादी लेखक के रूप में प्रख्यात जयशंकर प्रसाद ने विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन किया। ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं दीं| उन्हीं में से एक रचना "भारत महिमा" प्रस्तुत है:- हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे

जियो जियो अय हिन्दुस्तान - रामधारी सिंह "दिनकर"

जाग रहे हम वीर जवान, जियो जियो अय हिन्दुस्तान ! हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल, हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल । हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं । हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं। वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं। तन मन धन तुम पर कुर्बान, जियो जियो अय हिन्दुस्तान ! हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण, जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन ! एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल, जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल। थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर, स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर हम उन वीरों की सन्तान , जियो जियो अय हिन्दुस्तान ! हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले, रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले। हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं। हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे, मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं

ध्वज-वंदना - रामधारी सिंह "दिनकर"

६५वें गणतंत्र दिवस पर रामधारी सिंह "दिनकर" की रचना ध्वज वंदना प्रस्तुत है:- नमो, नमो, नमो। नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो ! नमो नगाधिराज - श्रृंग की विहारिणी ! नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी! प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी! नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी! नवीन सूर्य की नयी प्रभा,नमो, नमो! हम न किसी का चाहते तनिक, अहित, अपकार। प्रेमी सकल जहान का भारतवर्ष उदार। सत्य न्याय के हेतु फहर फहर ओ केतु हम विचरेंगे देश-देश के बीच मिलन का सेतु पवित्र सौम्य, शांति की शिखा, नमो, नमो! तार-तार में हैं गुंथा ध्वजे, तुम्हारा त्याग! दहक रही है आज भी, तुम में बलि की आग। सेवक सैन्य कठोर हम चालीस करोड़ कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर करते तव जय गान वीर हुए बलिदान, अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिन्दुस्तान! प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो

पुष्प की अभिलाषा - माखनलाल चतुर्वेदी

६५वें गणतंत्र दिवस के इस पावन मौके पर माखनलाल चतुर्वेदी की यह कविता प्रस्तुत है:- चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ, चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ चाह नहीं, देवों के सिर पर, चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ! मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक!!

प्रेयसी - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

घेर अंग-अंग को लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल घेर निज तरु-तन। खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के, प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ। दृगों को रँग गई प्रथम प्रणय-रश्मि,- चूर्ण हो विच्छुरित विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही बहु रंग-भाव भर शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के, किरण-सम्पात से। दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों विचरते मञ्जु-मुख गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे। प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक- भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में उठी हुई उर्वशी-सी, कम्पित प्रतनु-भार, विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि निश्चल अरूप में। हुआ रूप-दर्शन जब कृतविद्य तुम मिले विद्या को दृगों से, मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,- शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,- श्रृंगार शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को। याद है, उषःकाल,- प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में, प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की मञ्जरित लता पर प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर प्रणय-मिलन-गान, प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु

बालिका का परिचय- सुभद्रा कुमारी चौहान

गणतंत्र दिवस एवं बालिका बचाओ अभियान के इस सुअवसर पर   सुभद्रा कुमारी चौहान की यह कविता प्रासंगिक है. सुभद्रा जी ने 1921 में असहयोग-आन्दोलन के प्रभाव से अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ दी और राजनीति में सक्रिय भाग लेने लगीं. अपने राजनीतिक कार्यों के कारण इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा. काव्य-रचना की ओर इनकी प्रवृत्ति विद्यार्थी काल से ही थी. इनकी कविताएं ‘त्रिधारा’ और ‘मुकुल’ में संकलित हैं. भाव की दृष्टि से इनकी कविताओं को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है. प्रथम वर्ग में राष्ट्र प्रेम की कविताएं रखी जा सकती हैं. इनमें इन्होंने असहयोग या आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने वाले वीरों को अपना विषय बनाया है. इनकी ‘झांसी की रानी’ कविता तो सामान्य जनता में बहुत प्रसिद्ध हुई है. दूसरे वर्ग के अंतर्गत वे कविताएं रखी जा सकती हैं, जिनकी प्रेरणा इन्हें पारिवारिक जीवन से प्राप्त हुई है. ऐसी कविताओं में कुछ तो पतिप्रेम की  भावना से अनुप्राणित हैं और कुछ में संतान के प्रति वात्सल्य की सहज एवं मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है. इनकी भाषा-शैली भावों के अनुरूप सरलता और गति लिए हुए है. बालिका का परिचय यह  मेरी  ग

मधुशाला (१६)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला, मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला, मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा, जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१। यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला, यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला, किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही, नहीं-नहीं कवि  का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२। कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला, कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला! पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा, कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३। विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला, शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई, जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४। बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला, कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला, मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को, विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५। मधुशाला  के स्वर्ण जयंती वर्ष पर रचित नयी रुबाईयाँ --- रच

मधुशाला (१५)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला, जिसमें मैं बिंबित - प्रतिबिम्बित  प्रतिपल, वह मेरा प्याला, मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है, भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१। मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला, पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला, साकी से मिल, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया, मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२। मदिरालय के द्वार ठोंकता किस्मत का छंछा प्याला, गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला, कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया! बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३। कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला, कहाँ  गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला! पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना? फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४। अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला, अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला, फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर  पाया - अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५। 'मय' को करके

मधुशाला (१४)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला, छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला, आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते, कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११। कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला, कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला, कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है, प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२। बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला, कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला, पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना, मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३। छोड़ा मैंने पथ मतों को तब कहलाया मतवाला, चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला, अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है, क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४। यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला, तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला, जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५। कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला, टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माल

मधुशाला (१३)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला, क्यों पीने की अभिलषा से, करते सबको मतवाला, हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो, हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१। साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला, पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला, जीवन भर का, हाय, परिश्रम  लूट लिया दो बूंदों ने, भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२। जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला, जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला, मतवालों की जिह्वा  से हैं कभी निकलते शाप नहीं, दुखी बनाया  जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३। नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला, नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला, साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तिनक मलाल नहीं, इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४। मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला, क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला, साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा, प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५। क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला, क्या

मधुशाला (१२)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला, देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला, 'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे, किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१। कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला, छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला, कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती, आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२। 'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला, होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला, नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी, बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३। हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला, अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला, दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो, रह-रह जाती है बस मुझको मिलते- मिलते  मधुशाला।।९४। प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला, प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला, दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ, व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५। मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती ह

मधुशाला (११)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला, हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१। मेरे अधरों पर हो अंतिम  वस्तु न तुलसीदल प्याला मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला, मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२। मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला, दे मुझको वो कान्धा जिनके पग मद डगमग होते हों और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३। और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घृत का, पर प्याला कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला, प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना पीने वालों को बुलवा कऱ खुलवा देना मधुशाला।।८४। नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला, जाति प्रिय , पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५। ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला, पंडित अपनी पोथी भूला, सा

मधुशाला (१०)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला, दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला, मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी, जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१। ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला, गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला, साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा, दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२। क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिट्टी का प्याला, भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला, मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला, काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३। प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला, नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला, जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से, जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४। अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला, क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला, तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई, हमें नरक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५। यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला, पीड़ा, संकट

मधुशाला (९)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला, आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है, कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१। आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला, छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ, एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२। आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला, भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला, और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ, अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३। सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कञ्चन का प्याला छलक रही है जिसमें  माणिक रूप मधुर मादक हाला, मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४। दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला, भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला, नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ, अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ -अदाई मधुशाला।।६५। छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लू

मधुशाला (८)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला, बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला, एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले, देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१। और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला, इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला, कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२। आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला, आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला, होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर जहाँ अभी हैं मंदिर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३। यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भट्ठी  की ज्वाला, ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला, मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ, किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४। सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला, द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला, वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों, युग युग से है पुजती आई, नई नहीं है मधुशाला।।५५। वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला, रंभा की संतान जगत में कहलाती '

मधुशाला (७)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला, रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला, विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में, पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१। चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला, जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला, मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते, चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२। घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला, अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला, लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं, हंस मत्त  होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३। हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला, चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला, कोमल कूल -करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं, पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४। धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला, वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला, अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता, स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५। दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला, ठुकराया ठाकुरद्वारे ने

मधुशाला (६)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला, सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला, मत्त  समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए, फैले हों जो सागर तट- से विश्व बने यह मधुशाला।।३१। अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा  पर लगती हाला, भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला, हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती, आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२। पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला, भरी हुई है जिसके अंदर परिमल -मधु-सुरिभत हाला, माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं, झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३। प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला, छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला, छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४। मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला, हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ, छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५। साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला, तारक-मणि-मंडित

मधुशाला (५)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

बुरा  सदा कहलायेगा जग में बाँका,  मद-चंचल    प्याला, छैल  छबीला, रसिया  साकी, अलबेला     पीने     वाला,        पटे कहाँ से, मधुशाला  औ'        जग  की  जोड़ी ठीक नहीं, जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३। बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे,    वह  मतवाला, पी लेने   पर तो उसके मुँह पर   पड़  जाएगा   ताला,        दास- द्रोहियों दोनों में है        जीत सुरा की, प्याले की, विश्वविजयिनी बनकर जग में आई   मेरी   मधुशाला।।२४। हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर  पड़ जाए पाला, वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका  की ज्वाला,      स्वर्ग लोक से सीधी उतरी      वसुधा पर, दुख क्या जाने, पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद   मनाती मधुशाला।।२५। एक बरस में, एक बार ही जगती  होली  की ज्वाला, एक बार ही लगती  बाज़ी, जलती   दीपों की  माला,      दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन      आ   मदिरालय   में    देखो, दिन को होली, रात दिवाली, रोज़   मनाती   मधुशाला।।२६। नहीं   जानता  कौन, मनुज आया   बनकर    पीनेवाला, कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने   दूध   पिल

मधुशाला (४)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

धर्म - ग्रंथ      सब    जला चुकी है जिसके   अंतर    की         ज्वाला मंदिर , मस्जिद , गिरजे - सबको तोड़   चुका        जो      मतवाला ,                         पंडित , मोमिन , पादरियों के                        फंदों    को  जो   काट     चुका कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी      मधुशाला । लालायित  अधरों   से  जिसने हाय ,  नहीं   चूमी        हाला , हर्ष - विकंपित कर से  जिसने , हा , न   छुआ  मधु  का प्याला                    हाथ पकड़ लज्जित साकी का                     पास   नहीं    जिसने    खींचा व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने   मधुमय  मधुशाला । बने   पुजारी   प्रेमी   साकी , गंगाजल   पावन ,    हाला , रहे फेरता  अविरत  गति से मधु के   प्यालों   की माला ,                   और लिए जा , और पिये जा -                    इसी   मंत्र      का   जाप करे , मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूँ , मंदिर    हो  यह मधुशाला । बाजी न मंदिर में  घड़ियाली , चढ़ी न     प्रतिमा पर  माला बैठा अपने भवन  मुअज्जिन देकर   मस्जिद   में     ताला                       लुटे  खजाने  नरपतियों के

मधुशाला (३)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

जलतरंग बजता , जब चुंबन करता  प्याले   को     प्याला , वीणा   झंकृत   होती  चलती , जब  रुनझुन  साकी     बाला ,               डांट- डपट  मधुविक्रेता  की               ध्वनित  पखावज  करती है , मधुरव से मधु की मादकता और  बढ़ाती      मधुशाला । मेहँदी - रंजीत मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला अंगूरी    अवगुंठन     डाले स्वर्ण - वर्ण    साकी- बाला               पाग बेंजनी जामा नीला               डाट - डटे    पीने    वाले इंद्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली  मधुशाला । हाथों   में  आने से  पहले नाज़  दिखाएगा   प्याला अधरों पर आने  से पहले अदा    दिखाएगी    हाला               बहुतेरे   इंकार  करेगा               साकी   आने से  पहले पथिक , न घबरा जाना पहले मान   करेगी ,     मधुशाला । लाल   सुरा  की धार लपट सी कह   न   देना   इसे   ज्वाला फेनिल मदिरा है , मत इसको कह   देना   उर    की   छाला ,               दर्द नशा है इस मदिरा का               विगत स्मृतियाँ  साकी हैं पीड़ा  में आनंद जिसे हो आए   मेरी   मधुशाला । जगती की शीतल हाला सी पथिक ,  नहीं  मेरी   हाला

मधुशाला (२)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

मधुर  भावनाओं  की सुमधुर नित्य    बनाता    हूँ     हाला भरता  हूँ इस मधु  से अपने अंतर   का  प्यासा   प्याला ;             उठा कल्पना के हाथों से             स्वयं   इसे   पी जाता हूँ अपने    ही में   हूँ      साकी , पीने    वाला ,     मधुशाला । मदिरालय    जाने  को  घर से चलता      है    पीने      वाला , किस पथ से जाऊँ? असमंजस में     है     वो       भोलाभाला ;       अलग अलग पथ बतलाते सब       पर    मैं    यह   बतलाता   हूँ - राह   पकड़ तू एक चलाचल पा      जाएगा     मधुशाला । चलने ही चलने में कितना जीवन , हाय बिता डाला ! दूर अभी है , पर कहता है हर    पथ   बतलाने वाला        हिम्मत है न बढ़ूँ आगे को ,        साहस    है न   फिरूँ पीछे ; किंकर्तव्य विमूढ़  मुझे कर दूर  खड़ी    है    मधुशाला । मुख से तू अविरत  कहता   जा मधु , मदिरा ,    मादक   हाला हाथों में   अनुभव   करता  जा एक ललित    कल्पित  प्याला            ध्यान किए जा मन में सुमधुर ,            सुखकर   सुंदर     साकी   का ; और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको  दूर          लगेगी      मधुशाला । मदिरा पीने

मधुशाला (१)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

मृदु    भावों  के अंगूरों  की आज  बना  लाया      हाला प्रियतम , अपने ही हाथों से आज   पिलाऊंगा   प्याला ;                पहले भोग लगा लूँ तेरा                फिर प्रसाद जग पाएगा ; सबसे पहले तेरा स्वागत करती    मेरी मधुशाला । प्यास तुझे तो , विश्व तपा कर पूर्ण      निकालूँगा       हाला एक   पाँव  से  साकी बन कर नाचूंगा       लेकर     प्याला               जीवन की मधुता तो  तेरे               ऊपर  कब का  वार चुका , आज निछावर कर दूंगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला ।  प्रियतम   तू   मेरी हाला है  मैं   तेरा  प्यासा    प्याला अपने को मुझमें भर कर तू बनता   है ,    पीने वाला  ;         मैं तुझको छक छलका करता,          मस्त    मुझे   पी    तू  होता ; एक  दूसरे को हम दोनों आज परस्पर मधुशाला । भावुकता    अंगूर   लता  से खींच   कल्पना  की    हाला कवि साकी बन कर आया है भर  कर कविता का प्याला ;          कभी न कण  भर खाली होगा ,          लाख  पिएं , दो  लाख    पिएं पाठकगण  हैं पीने वाले पुस्तक मेरी मधुशाला ।                                                    क्रमश: