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Showing posts from February, 2014

श्रद्धा (कामायनी) - जयशंकर प्रसाद

कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक, कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत-जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य" सुना यह मनु ने मधु गुंजार मधुकरी का-सा जब सानंद, किये मुख नीचा कमल समान प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद, एक झटका-सा लगा सहर्ष, निरखने लगे लुटे-से कौन गा रहा यह सुंदर संगीत? कुतुहल रह न सका फिर मौन। और देखा वह सुंदर दृश्य नयन का इद्रंजाल अभिराम, कुसुम-वैभव में लता समान चंद्रिका से लिपटा घनश्याम। हृदय की अनुकृति बाह्य उदार एक लम्बी काया, उन्मुक्त मधु-पवन क्रीडित ज्यों शिशु साल, सुशोभित हो सौरभ-संयुक्त। मसृण, गांधार देश के नील रोम वाले मेषों के चर्म, ढक रहे थे उसका वपु कांत बन रहा था वह कोमल वर्म। नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग, खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघवन बीच गुलाबी रंग। आह वह मुख पश्विम के व्योम बीच जब घिरते हों घन श्याम, अरूण रवि-मंडल उनको भेद दिखाई देता हो छविधाम। या कि, नव इंद्रनील लघु श्रृंग फोड़ कर धधक रही हो कांत एक ज्वाल

आशा (कामायनी) - जयशंकर प्रसाद

ऊषा सुनहले तीर बरसती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई, उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का आज लगा हँसने फिर से, वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में शरद-विकास नये सिर से। नव कोमल आलोक बिखरता हिम-संसृति पर भर अनुराग, सित सरोज पर क्रीड़ा करता जैसे मधुमय पिंग पराग। धीरे-धीरे हिम-आच्छादन हटने लगा धरातल से, जगीं वनस्पतियाँ अलसाई मुख धोती शीतल जल से। नेत्र निमीलन करती मानो प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने, जलधि लहरियों की अँगड़ाई बार-बार जाती सोने। सिंधुसेज पर धरा वधू अब तनिक संकुचित बैठी-सी, प्रलय निशा की हलचल स्मृति में मान किये सी ऐठीं-सी। देखा मनु ने वह अतिरंजित विजन का नव एकांत, जैसे कोलाहल सोया हो हिम-शीतल-जड‌़ता-सा श्रांत। इंद्रनीलमणि महा चषक था सोम-रहित उलटा लटका, आज पवन मृदु साँस ले रहा जैसे बीत गया खटका। वह विराट था हेम घोलता नया रंग भरने को आज, 'कौन'? हुआ यह प्रश्न अचानक और कुतूहल का था राज़! "विश्वदेव, सविता या पूषा, सोम, मरूत, चंचल पवमान, वरूण आदि सब घूम रहे हैं किसके शासन में अम्लान? किसका था भू-भंग