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आशा

तुम फिर मिलोगे
कहकर जो तुम गए थे
अब तक देखो
तक रहा हूं
जिस पथ तुम गए थे

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मधुशाला (१६)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला, मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला, मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा, जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१। यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला, यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला, किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही, नहीं-नहीं कवि  का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२। कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला, कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला! पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा, कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३। विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला, शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई, जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४। बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला, कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला, मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को, विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५। मधुशाला  के स्वर्ण जयंती वर्ष पर रचित नयी रुबाईयाँ --- रच

मधुशाला (१४)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला, छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला, आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते, कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११। कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला, कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला, कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है, प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२। बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला, कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला, पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना, मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३। छोड़ा मैंने पथ मतों को तब कहलाया मतवाला, चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला, अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है, क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४। यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला, तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला, जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५। कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला, टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माल

बालिका का परिचय- सुभद्रा कुमारी चौहान

गणतंत्र दिवस एवं बालिका बचाओ अभियान के इस सुअवसर पर   सुभद्रा कुमारी चौहान की यह कविता प्रासंगिक है. सुभद्रा जी ने 1921 में असहयोग-आन्दोलन के प्रभाव से अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ दी और राजनीति में सक्रिय भाग लेने लगीं. अपने राजनीतिक कार्यों के कारण इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा. काव्य-रचना की ओर इनकी प्रवृत्ति विद्यार्थी काल से ही थी. इनकी कविताएं ‘त्रिधारा’ और ‘मुकुल’ में संकलित हैं. भाव की दृष्टि से इनकी कविताओं को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है. प्रथम वर्ग में राष्ट्र प्रेम की कविताएं रखी जा सकती हैं. इनमें इन्होंने असहयोग या आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने वाले वीरों को अपना विषय बनाया है. इनकी ‘झांसी की रानी’ कविता तो सामान्य जनता में बहुत प्रसिद्ध हुई है. दूसरे वर्ग के अंतर्गत वे कविताएं रखी जा सकती हैं, जिनकी प्रेरणा इन्हें पारिवारिक जीवन से प्राप्त हुई है. ऐसी कविताओं में कुछ तो पतिप्रेम की  भावना से अनुप्राणित हैं और कुछ में संतान के प्रति वात्सल्य की सहज एवं मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है. इनकी भाषा-शैली भावों के अनुरूप सरलता और गति लिए हुए है. बालिका का परिचय यह  मेरी  ग