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मधुशाला (१)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

मृदु    भावों  के अंगूरों  की
आज  बना  लाया      हाला
प्रियतम , अपने ही हाथों से
आज   पिलाऊंगा   प्याला ;
               पहले भोग लगा लूँ तेरा
               फिर प्रसाद जग पाएगा ;
सबसे पहले तेरा स्वागत
करती    मेरी मधुशाला ।

प्यास तुझे तो , विश्व तपा कर
पूर्ण      निकालूँगा       हाला
एक   पाँव  से  साकी बन कर
नाचूंगा       लेकर     प्याला
              जीवन की मधुता तो  तेरे
              ऊपर  कब का  वार चुका ,
आज निछावर कर दूंगा मैं
तुझ पर जग की मधुशाला ।

 प्रियतम   तू   मेरी हाला है
 मैं   तेरा  प्यासा    प्याला
अपने को मुझमें भर कर तू
बनता   है ,    पीने वाला  ;
        मैं तुझको छक छलका करता,
         मस्त    मुझे   पी    तू  होता ;
एक  दूसरे को हम दोनों
आज परस्पर मधुशाला ।

भावुकता    अंगूर   लता  से
खींच   कल्पना  की    हाला
कवि साकी बन कर आया है
भर  कर कविता का प्याला ;
         कभी न कण  भर खाली होगा ,
         लाख  पिएं , दो  लाख    पिएं
पाठकगण  हैं पीने वाले
पुस्तक मेरी मधुशाला ।

                                                   क्रमश:


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