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मधुशाला (३)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

जलतरंग बजता , जब चुंबन
करता  प्याले   को     प्याला ,
वीणा   झंकृत   होती  चलती ,
जब  रुनझुन  साकी     बाला ,
              डांट- डपट  मधुविक्रेता  की
              ध्वनित  पखावज  करती है ,
मधुरव से मधु की मादकता
और  बढ़ाती      मधुशाला ।

मेहँदी - रंजीत मृदुल हथेली
पर माणिक मधु का प्याला
अंगूरी    अवगुंठन     डाले
स्वर्ण - वर्ण    साकी- बाला
              पाग बेंजनी जामा नीला
              डाट - डटे    पीने    वाले
इंद्रधनुष से होड़ लगाती
आज रंगीली  मधुशाला ।

हाथों   में  आने से  पहले
नाज़  दिखाएगा   प्याला
अधरों पर आने  से पहले
अदा    दिखाएगी    हाला
              बहुतेरे   इंकार  करेगा
              साकी   आने से  पहले
पथिक , न घबरा जाना पहले
मान   करेगी ,     मधुशाला ।

लाल   सुरा  की धार लपट सी
कह   न   देना   इसे   ज्वाला
फेनिल मदिरा है , मत इसको
कह   देना   उर    की   छाला ,
              दर्द नशा है इस मदिरा का
              विगत स्मृतियाँ  साकी हैं
पीड़ा  में आनंद जिसे हो
आए   मेरी   मधुशाला ।

जगती की शीतल हाला सी
पथिक ,  नहीं  मेरी   हाला
जगती   के ठंडे   प्याले सा ,
पथिक , नहीं मेरा प्याला ,
          ज्वाल - सुरा जलते  प्याले में
          दग्ध  हृदय   की   कविता  है
जलने से भयभीत न हो जो ,
आए     मेरी       मधुशाला ।

बहती हाला देखी , देखो
लपट  उठाती अब हाला ,
देखो प्याला अब छूते ही
होठ  जला   देने    वाला ,
            होठ नहीं , सब देह दहे , पर
            पीने   को   दो   बूंद    मिले ,
ऐसे  मधु   के दीवाने को
आज बुलाती  मधुशाला ।

                                        क्रमश:


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