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मधुशाला (२)- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

मधुर  भावनाओं  की सुमधुर
नित्य    बनाता    हूँ     हाला
भरता  हूँ इस मधु  से अपने
अंतर   का  प्यासा   प्याला ;
            उठा कल्पना के हाथों से
            स्वयं   इसे   पी जाता हूँ
अपने    ही में   हूँ      साकी ,
पीने    वाला ,     मधुशाला ।

मदिरालय    जाने  को  घर से
चलता      है    पीने      वाला ,
किस पथ से जाऊँ? असमंजस
में     है     वो       भोलाभाला ;
      अलग अलग पथ बतलाते सब
      पर    मैं    यह   बतलाता   हूँ -
राह   पकड़ तू एक चलाचल
पा      जाएगा     मधुशाला ।

चलने ही चलने में कितना
जीवन , हाय बिता डाला !
दूर अभी है , पर कहता है
हर    पथ   बतलाने वाला
       हिम्मत है न बढ़ूँ आगे को ,
       साहस    है न   फिरूँ पीछे ;
किंकर्तव्य विमूढ़  मुझे कर
दूर  खड़ी    है    मधुशाला ।

मुख से तू अविरत  कहता   जा
मधु , मदिरा ,    मादक   हाला
हाथों में   अनुभव   करता  जा
एक ललित    कल्पित  प्याला
           ध्यान किए जा मन में सुमधुर ,
           सुखकर   सुंदर     साकी   का ;
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको
 दूर          लगेगी      मधुशाला ।

मदिरा पीने की अभिलाषा
ही   बन  जाये  जब हाला ,
अधरों की  आतुरता में ही
जब आभासित हो प्याला ;
              बने ध्यान ही करते करते
              जब  साकी साकार , सखे
रहे न हाला , प्याला , साकी
तुझे   मिलेगी    मधुशाला ।

सुन कलकल , छल छल   मधु -
घट से गिरती  प्यालों  में हाला ,
सुन ,   रुनझुन  रुनझुन   चल
वितरण करती मधु साकीबाला ;
            बस आ पहुंचे , दूर नहीं कुछ ,
            चार   कदम   अब  चलना है ;
चहक रहे , सुन , पीनेवाले ,
महक रही, ले , मधुशाला ।


                                                   क्रमश 

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